Complete Modern History in 10 Hours | सुबह 8 बजे | UPSC CSE 2023 & 2024 | Madhukar Kotawe

Complete Modern History in 10 Hours | सुबह 8 बजे | UPSC CSE 2023 & 2024 | Madhukar Kotawe

Brief Summary

ये लेक्चर आधुनिक भारत के इतिहास पर आधारित है, जिसमें 1757 से लेकर 1947 तक की घटनाओं को शामिल किया गया है। इसमें यूरोपियन कंपनियों का भारत में आगमन, ब्रिटिश शासन की स्थापना, स्वतंत्रता संग्राम और भारत का विभाजन जैसे विषय शामिल हैं। इसके अलावा, अनअकैडमी के नए बैच और डिस्काउंट के बारे में भी जानकारी दी गई है।

  • यूरोपियन कंपनियों का भारत आगमन
  • 1857 का विद्रोह
  • कांग्रेस की स्थापना
  • भारत का विभाजन

परिचय

इस वीडियो में, यूपीएससी सीएसई हिंदी में आपका स्वागत है। ये मैराथन क्लास है जिसमें आधुनिक भारत का इतिहास कवर किया जाएगा। लेखक का कहना है कि इस क्लास को पूरी ईमानदारी से कवर करें क्योंकि इसमें बहुत मेहनत लगी है। लेखक अनअकैडमी के बारे में बताते हैं, जो 20% का डिस्काउंट दे रहा है एमके लाइव रेफरल कोड के साथ। 20 अप्रैल से एक नया फाउंडेशन बैच शुरू हो रहा है, जो बाइलिंगुअल होगा। 14 अप्रैल तक 20% का डिस्काउंट है। ऑफलाइन बैच भी शुरू हो रहा है करोल बाग में, जिसमें एमके लाइव रेफरल कोड का इस्तेमाल करने पर 10% का डिस्काउंट मिलेगा। सभी मैराथन क्लास के पीडीएफ क्लास के नीचे ही मिल जाएंगे।

आधुनिक भारत का इतिहास

आज हम आधुनिक भारत के इतिहास के बारे में बात करेंगे। आधुनिक भारत का इतिहास 1757 के प्लासी की लड़ाई से शुरू होता है। 1757 का युद्ध करने वाली ईस्ट इंडिया कंपनी कैसे भारत आई, किन कारणों से भारत आई, और ऐसा क्या हुआ कि यह भारत में सत्ता प्राप्त करने का लक्ष्य लेकर बैठी, जो कि पूरी तरह से व्यापार के माइंड सेट से आई थी। इस आधुनिक भारत के इतिहास की जड़े कहीं न कहीं मध्य काल में छिपी हुई है। 1757 को समझने के लिए 1498 को समझना होगा। पिक्चर में दो सीन रहेंगे, एक यूरोप का और दूसरा भारत का। 1757 की लड़ाई के बाद पिक्चर पूरी तरह से भारत पर फोकस्ड हो जाएगी।

सिलेबस और किताबें

यूपीएससी प्रीलिम्स में भारत का इतिहास और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन शामिल हैं। मेन्स में जीएस पेपर वन में विश्व का इतिहास और भारतीय विरासत संस्कृति के रूप में है। यूनिट दो, तीन और चार इंडियन मॉडर्न हिस्ट्री को समर्पित हैं। 2017 में नौ क्वेश्चन, 2018 में छह क्वेश्चन, 2019 में 10, 2020 में सात, 2021 में पांच और 2022 में छह क्वेश्चन हैं। हिस्ट्री में एनसीईआरटी की सीरीज सबसे बढ़िया है। आधुनिक भारत में विपिन चंद्रा की किताब आती है। इसके अलावा स्पेक्ट्रम, आजादी के बाद का भारत और आधुनिक विश्व का इतिहास भी पढ़ सकते हैं।

यूरोपियन कंपनियों का भारत आगमन

यूरोपियन कंपनियों का भारत आगमन, 18वीं सदी के मध्य का भारत, बंगाल में ब्रिटिश सत्ता की स्थापना, ब्रिटिश साम्राज्यवाद, सामाजिक और धार्मिक सुधार, 1857 की क्रांति, 1857 के विद्रोह के परिणाम, 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी, इंडियन कांग्रेस की स्थापना, भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन, महात्मा गांधी का आगमन, गैर कांग्रेसी संगठन, स्वदेशी आंदोलन, मुस्लिम लीग, साइमन कमीशन, गोलमेज सम्मेलन, कम्यून अवार्ड, पुना पैक्ट, आजाद हिंद फौज, वेवेल योजना, इटली योजना, कैबिनेट मिशन योजना, माउंट बेटन योजना और भारत का विभाजन। कंपनी के शासन के दौरान कुछ कानून पारित हुए, ब्रिटिश क्राउन काल के दौरान अधिनियम हुए, कंपनी शासन काल के प्रमुख गवर्नर जनरल, ब्रिटिश क्राउन काल के प्रमुख गवर्नर जनरल, ब्रिटिश शासन का भारत का इकोनॉमिकल, सोशल और पॉलिटिकल इंपैक्ट, ब्रिटिश शासन के रिलीजन और कल्चर पर क्या इंपैक्ट पड़े, एजुकेशन सिस्टम, प्रेस की स्वतंत्रता, आजादी के बाद देशी रियासतों का एकीकरण, रियासतों के एकीकरण की नीति और सिद्धांत, एकीकरण के बड़े चैलेंज और सरदार पटेल जी की भूमिका पर चर्चा की जाएगी।

यूरोप में 15वीं सदी

15वीं सदी में यूरोप में वैज्ञानिकों का जन्म हुआ, जिन्होंने चर्च के प्रभुत्व को चैलेंज किया। 12वीं-13वीं सदी से ही यूरोप में धार्मिक आंदोलनों का उदय हो चुका था। 15वीं सदी तक यूरोप आधुनिकता के दौर में कदम रख चुका था। राजा-महाराजा लोगों को नई जमीन खोजने के लिए मोटिवेट कर रहे थे। यूरोप के लोग समुद्री मार्ग के नए विकल्पों की खोज कर रहे थे। 15वीं सदी में दिल्ली सल्तनत काल चल रहा था। 1526 में मुगल सत्ता का आगमन हुआ। भारत में युद्ध चल रहे थे, और विज्ञान जैसे विषय के लिए फुर्सत नहीं थी। भारत एक बहुत बड़ा देश था, इसलिए लोग अपनी ही जमीन को यूटिलाइज नहीं कर पा रहे थे।

भारत की ओर

यूरोपियन लोग भारत की ओर इसलिए आना चाहते थे क्योंकि भारतीय कपड़े और मसाले पूरी दुनिया में फेमस थे। यूरोप में आठ महीने बर्फबारी होती है, इसलिए खेती के लिए बहुत कम समय मिलता है। अधिकतर लोग नॉन वेजिटेरियन हैं, और मांस को टेस्टी बनाने के लिए भारतीय मसालों का इस्तेमाल करते हैं। यूरोप का हर देश मसाले और कपड़ों के व्यापार पर मोनोपोली चाहता है। जमीनी मार्ग तुर्की के रास्ते इस्तांबुल से होते हुए भारत तक पहुंच रहा था। 1453 में अरब वासी पूरा रास्ता ब्लॉक कर देते हैं। भारतीय मसाले और कपड़ों की आपूर्ति यूरोप में कम हो गई, और कीमतें आसमान छूने लगी। नई-नई कंपनियां भारतीय मसाले तक पहुंचना चाहती हैं।

वास्कोडिगामा

वास्कोडिगामा 1498 में पुर्तगाली राजा की मदद से भारत की खोज करता है। वास्कोडिगामा भारत से मसाले और कपड़े भरा हुआ जहाज ले जाता है, तो 60 गुना मुनाफा कमाता है। बाकी कंपनियों में एक आनंद की लहर उठती है। सभी लोग वास्कोडिगामा और पुर्तगीज के जहाजों से संपर्क करते हैं और पूछते हैं कि हमें रास्ता बताओ। हर कोई अपने-अपने जहाज लेकर भारत की ओर अग्रसर हो रहा है। ये लोग भारत पर शासन करने के दिमाग से नहीं आ रहे हैं, इनका दिमाग तो केवल भारत के मसाले और भारत के कपड़े किस तरीके से प्राप्त करें ताकि अपने देश में मुनाफा ज्यादा से ज्यादा कम सके। ये लोग अपने जहाजों में सोना चांदी ऐसे कई सारे सिक्के लेकर आ रहे भारत की ओर। हमें सिक्के दे रहे और हमसे मसाले और कपड़े लेकर जा रहे हैं। लगातार भारत की ओर धातु का आगमन हो रहा है, और भारत लगातार अमीर पर अमीर होता जा रहा है।

यूरोपियन कंपनियों का आगमन

15वीं सदी के अंत तथा 16वीं सदी के प्रारंभ में यूरोपियन कंपनियों का भारत में प्रवेश प्रारंभ हुआ। इस समय भारत में दिल्ली सल्तनत काल था। उत्तर वर्ती दिल्ली सल्तनत और पूर्ववर्ती मुगल काल में केंद्रीय सत्ता के मजबूत होने के कारण यूरोपियन कंपनी ने केवल अपने व्यापारिक हितों को महत्व दिया। पानीपत का प्रथम युद्ध 21 अप्रैल 1526 में हुआ। इब्राहिम लोदी पराजय होता है, और दिल्ली सल्तनत के स्थान पर मुगल सत्ता कायम होती है। पुर्तगाल, डच, डेनिश की कंपनियां भी अपने व्यापारिक हितों को विकसित करने के लिए क्षेत्रीय संघर्ष में संलग्न हैं। वे कंपनियां यह सोचती थी कि अगर हम सब मिलकर काम करेंगे तो निपट जाएंगे। वही सक्सेसफुल होगा जो केवल एक आखिरी कंपनी के रूप में शेष बचेगा।

15वीं और 16वीं सदी

15वीं और 16वीं सदी में भारत अपने मध्यकाल में है, जबकि यूरोप अपने आधुनिक काल में है। यूरोपियों द्वारा नवीन भौगोलिक खोजें की जाने लगी ताकि अपने व्यापार को वैश्विक स्तर पर प्रसारित कर सके। यूरोपियन देशों द्वारा भारत के जलीय मार्ग के माध्यम से खोज के प्रयास प्रारंभ हुए। 14वीं और 15वीं सदी में स्थलीय व्यापारिक मार्गों में बाधाएं उत्पन्न होने लगी, जिसके कारण यूरोपियन द्वारा भारत और पूर्वी देशों के साथ अपने व्यापार को बेहतर करने के लिए नवीन जल मार्गों की खोज करने लगे। यूरोपियन देशों द्वारा नवीन जलीय मार्गों की खोज क्यों कहानी का वह तीसरा भाग जगह का नाम है कुस्तुनतुनिया अरबों का अधिकार होता है। यूरोपियन द्वारा नई भौगोलिक खोजे क्योंकि यूरोप के कई सारे वैज्ञानिक कई सारे राजा वैज्ञानिक खोजों की ओर आकर्षित हुए और उन्होंने दिशा सूचक यंत्र बनाने शुरू किए जो उन्हें समुद्र में बेहतर दिशा बताने में मदद कर सके।

वास्कोडिगामा का रास्ता

वास्कोडिगामा भारत पहुंचेगा इस रास्ते से। नो डाउट यह रास्ता ज्यादा छोटा है और यह रास्ता बहुत ही बड़ा है। लेकिन शॉर्टकट मिल जाता है जो जमीन से भी छोटा और जमीन पर चलने में रफ्तार कम होती है, पानी पर चलने में रफ्तार ज्यादा तो जमीन से भी बहुत छोटा रास्ता और बहुत ही कम समय में वह भारत पहुंचने की संभावनाओं में जुड़ जाते हैं। 1869 में स्वेज नहर को खुलवा दिया। कुस्तु दुनिया पर अरबों का अधिकार पहले कुस्तु दुनिया जिसे आधुनिक स्थान बुल यूरोप के पूर्वी भाग में तुर्की के अंतर्गत था किंतु 1453 में मध्य एशिया के अरबों ने कुस्तु दुनिया पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इसी कारण पूर्वी एशिया और यूरोपियन देशों के बीच व्यापार का जो स्थलीय मार्ग था व रुक गया था।

पुनर्जागरण काल

व्यापार के स्थलीय मार्ग में अवरोध आने से तथा पुनर्जागरण काल के कारण यूरोपियन देश विशेषकर पुर्तगाल और स्पेन के द्वारा नई भौगोलिक खोजें की जाने लगी ताकि व्यापार को पुनः रंभ किया जा सके। भाग्य वश इस समय पुर्तगाल का शासन हेनरी था और हेनरी एक खोजी प्रवृत्ति का शासक था। केंद्री द्वारा समुद्री व्यापार को प्रोत्साहन देने के लिए दिशा सूचक यंत्र के निर्माण को प्रोत्साहन देने के साथ नक्षत्रों की गणना करना नक्षत्र मतलब तारों को देखना उनकी लोकेशन आइडेंटिफिकेशन भी कहा जाता इन दिशा सूचक यंत्रों की सहायता से यूरोपियन व्यापारी समुद्री मार्ग के माध्यम से विदेशी व्यापार के लिए प्रेरित हुए साथ ही हेंद्री ने विदेशी व्यापार के लिए व्यापारी कंपनियों को आर्थिक सहायता भी दी पैसे भी दिए कि तुम जाओ खोजो मेरा पूरा समर्थन है।

जहाज रानी और नव परिवहन

जहाज रानी और नव परिवहन का उच्च स्तर पर विकास यूरोप में 15वीं शताब्दी में हुआ। पुर्तगाल जैसे देश द्वारा निजी व्यापारियों को भी समुद्री जहाजों के निर्माण के लिए मोटिवेट किया गया। इस प्रकार नौ परिवहन के विकास ने भी पूर्वी देशों के साथ यूरोपियन देशों के समुद्री संपर्क को बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त किया। पुर्तगाल के वास्कोडिगामा 1498 में भारत की जमीन पर कदम रखते हैं और भारत की खोज करते हैं। स्पेन का कोलंबस खोज करने निकला था भारत की पर बिचारा पहुंच गया अमेरिका। ब्रिटेन का कैप्टन कुक भी निकला था खोज कर करने और वह पहुंच गया ऑस्ट्रेलिया। हॉलैंड का तस्मान वन डी मंस लैंड या तस्मानिया या न्यूजीलैंड की खोज की थी हॉलैंड के तस्मान ने।

यूरोपियन के भारत आगमन का उद्देश्य

यूरोपियन के भारत आगमन का उद्देश्य मसाले, कपड़े और चाइना का रेशम प्राप्त करना था। थोड़ा बहुत मकसद अपने धर्म का प्रचार करना रहेगा, लेकिन वह प्रारंभिक मकसद नहीं है। यूरोपियन कंपनियों के भारत आगमन का मुख्य उद्देश मसालों का व्यापार था। भारत में आकर यूरोपियन कंपनियों ने विभिन्न स्थानों पर अपनी व्यापारिक बस्तियां स्थापित की। हालांकि य बस्तियां अथवा फैक्ट्री उत्पादन के केंद्र नहीं थे। वस्तु और मसालों आदि का संग्रह कर उन्हें यूरोप भेजा जाता था। यह बस्तियां किले बंद क्षेत्र की तरह होती थी जिनमें वस्तुओं के भंडारण के अलावा कार्यालय और व्यापार के व्यापारियों के आवास ग्रह भी होते थे। भारत में बस्तियों के निर्माण की यह कला पुर्तगालियों द्वारा मूलत इटली के व्यापारियों से प्राप्त की गई।

यूरोपियन कंपनी

भारत में जो यूरोपियन कंपनी आई, उसका सीक्वेंस क्या है? पुर्तगीज, डच, अंग्रेजी, डेनिश और फ्रांसीसी। पुर्तगीज की कंपनी 1498 में बनी थी, और इसने अपनी पहली कोठी 1503 में कोचीन में खोली। डच ईस्ट इंडिया कंपनी 1602 में बनी थी, लेकिन भारत में 1605 में मछली पटनम में खोली। अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी 1600 में बनी थी, लेकिन पहली औपचारिक शुरुआत फैक्ट्री की हुई सूरत में 1613 में। डेनिश ईस्ट इंडिया कंपनी 1616 में बनी थी, और वह ट्रंक बेर में अपनी पहली शाखा खोलते हैं। फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी सबसे अंत में आती है।

पुर्तगीज का आगमन

पहला पुर्तगीज जो भारत आया वास्कोडिगामा, कालीकट केरल में। अरबों के व्यापारिक प्रभाव को समाप्त करना, मसालों के व्यापार पर मोनोपोली चाहते यही है। भारत में ईसाई धर्म का प्रसार, लेकिन वैसे मैं कहूंगा कि ईसाई धर्म भारत में ऑलरेडी था, लेकिन प्रसार के रूप में नहीं। पुर्तगीज का मेन मकसद धर्म का प्रसार नहीं है, पर ये क्यों धर्म के प्रसार की आड़ लेते थे क्योंकि पुर्तगीज में राजाओं का भले ही प्रभुत्व रहा, लेकिन धर्म का प्रभुत्व उतना तेजी से खत्म नहीं हुआ, तब कई बार चर्च के लोग विरोध करते थे कि आप ऐसी यात्राएं ना करें, तो वह चर्च को क्या बोलकर मनाते थे कि हम आपके धर्म का प्रसार करने जा रहे हैं।

वास्कोडिगामा का रास्ता

वास्कोडिगामा का रास्ता पुर्तगाल से शुरू हुआ, और वह केप वर्डे और कैप ऑफ गुड होप होते हुए कालीकट तट पर स्थित कडा बू नामक स्थान पर पहुंचता है। 1500 ईसवी में पेड्रो अल्वारेज कैब्राल भारत आने वाला दूसरा पुर्तगीज था। 1502 में वास्कोडिगामा पुनः भारत आया था। वास्कोडिगामा जब पुर्तगाल वापस लौटा तो उसने भारत से लेकर गए मसालों को 60 गुना अधिक मूल्य पर बेचा। इससे अन्य पुर्तगाली व्यापारी भी भारत के आगमन के लिए आक हुए। उल्लेखनीय कि कैप ऑफ गुड होप की खोज पुर्तगाली नाविक बार्थो लोमू द्वारा की गई थी। कालीकट का जो राजा था उस समय में जमोरिन था वास्कोडिगामा का स्वागत किया। हालांकि भारत में पहले से विद्यमान अरब व्यापारी थोड़ा सा जमोरिन के इस कदम का विरोध करेंगे।

पुर्तगालियों के भारत में

1503 में पुर्तगालियों ने कोचीन में अपनी पहली व्यापारी कोठी की स्थापना की। पुर्तगालियों के भारत में प्रथम दुर्ग का निर्माण 1503 में अल्बूकर्क ने किया। पुर्तगालियों के द्वारा जो पहला गवर्नर नियुक्त किया था उसका नाम था फ्रांसिस्को डी अलमेडा। 1509 में फ्रांसिस्को डी अलमेडा ने दीव पर अधिकार कर लिया। साथ ही अलमेड़ा ने हिंद महासागर के व्यापार पर नियंत्रण स्थापित किया। नियंत्रण स्थापित करके ब्लू वाटर पॉलिसी या शांत जल की नीति को अपनाया। वस्तुत अलमेड़ा का दूर दृष्टि का परिणाम था कि उसने उस समय भारतीय शासकों के विपरीत समुद्री व्यापार के महत्व को समझ लिया। इस समय पुर्तगालियों का प्रमुख उद्देश्य शांतिपूर्वक व्यापार करना और भारत में मसालों के व्यापार पर मोनोपोली करना परंतु ब्लू वाटर पॉलिसी ने समुद्री क्षेत्र में पुर्तगालियों की व्यापारिक महत्वाकांक्षा को बढ़ा दिया।

अल्बूकर्क

1509 में अल्बूकर्क भारत में पुर्तगाली गवर्नर बनकर आया। अल्बूकर्क को भारत में पुर्तगाली साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। अल्बूकर्क ने भारतीयों को भी पुर्तगाली सेना में छोटे पदों पर भर्ती किया। निम्न वर्गीय पुर्तगालियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने हेतु प्रेरित किया ताकि भारत में पुर्तगाली बस्तियां बसाई जा सके और सुगमता पूर्वक व्यापार किया जा सके। अल्बूकर्क ने कोचन के क्षेत्र में सती प्रथा पर रोक लगा दी। 1510 में अल्बूकर्क ने बीजापुर के शासक आदिल शाह यूसुफ से सैन्य अभियान के माध्यम से गोवा जीत लिया। इसके अलावा अल्बूकर्क ने 1511 में दक्षिण पूर्व एशिया के महत्त्वपूर्ण क्षेत्र मलक्का और 1515 में फारस की खाड़ी तट पर स्थित हरमुज समुद्री क्षेत्र पर भी कब्जा कर लिया। भारत में आने वाले सबसे पहले लोग पुर्तगाली और सबसे आखिरी में जाने वाले भी पुर्तगाली।

नीनू डी कुन्हा

1529 में नीनू डी कुन्हा भारत में गवर्नर बनकर आया। कुन्ने भारत में पुर्तगाली राजधानी कोचीन की जगह गोवा को बनाया। कुन्हा द्वारा स्थापित पुर्तगाली बस्तियां मद्रास में सिथो, बंगाल में हुगली और काठिया वार्ड में दीव। भारत में पुर्तगालियों के फैक्ट्री सबसे पहले आई कोचीन, कन्नूर, गोवा, चटगांव, सतगांव, दीव और दमन। यूरोपियन शक्तियों में सर्वप्रथम पुर्तगाली व्यापारियों ने भारत में समुद्रिक व्यापार केंद्र स्थापित किए। 1632 में मुगल सम्राट शाहजा ने हुगली में पुर्तगाली बस्तियों को पूर्णतः नष्ट करने का आदेश दिया क्योंकि पुर्तगालियों द्वारा हुगली को बंगाल की खाड़ी में समुद्री लूटपू के उद्देश्य से इस्तेमाल किया जा रहा था। पुदुचेरी पर कब्जा करने वाली पहली यूरोपियन शक्ति पुर्तगाली थी।

पुर्तगाली, डच और फ्रांसीसी

पुदुचेरी में सर्वप्रथम पुर्तगालियों ने अपना उपनिवेश स्थापित किया। इसके बाद डचों ने पुदुचेरी में अपनी व्यापारिक कोठियां खोली थी। 1673 में फ्रांसी सियों ने पदुचे में अपनी पहली व्यापारिक कोठी खोली। अंततः 1793 में अंग्रेजों ने पुदुचेरी को पूर्णत अपने नियंत्रण में ले लिया और 1763 में पेरिस की संधि के तहत पदुचे पुनः किसके हाथ में आ गई फ्रांसीसी हो के। तो एक बार सीक्वेंस पहले आए पुर्तगीज फिर डच अंग्रेज और फिर फ्रांस। फाइनली आजादी के समय उन पर फ्रांसी सियों का कब्जा रहा।

कार्टस आरमेडा काफिला पद्धति

पुर्तगालियों ने जब भारत के तटवर्ती क्षेत्रों सहित हिंद महासागर में स्थित मजबूत स्थिति मजबूत कर ली तो कार्टस आरमेडा काफिला पद्धति का अनुसरण किया। इस पद्धति के तहत पुर्तगालियों ने भारतीय और अरब व्यापारी के समुद्री जहाजों को बिना परमिट के अरब सागर में प्रवेश करने पर प्रतिबंध लगा दिया। यहां तक कि उन्होंने यह भी बता दिया कि जो काली मिर्च होगी वह भी आप इस समुद्र मार्ग से लेकर नहीं जा सकते। यह परमिट प्रणाली इतनी मजबूत थी कि स्वयं मुगल सम्राट अकबर के जहाजों को भी अरब सागर में प्रवेश करने के लिए परमिट की जरूरत होती थी।

पुर्तगालियों की सफलता और असफलता

पुर्तगालियों की भारत में सफलता के कारण पुर्तगाली शासन के द्वारा उन्हें सहयोग मिला, नौसेना की क्षमता अच्छी थी, काफी अच्छे गवर्नर आए, तटवर्ती क्षेत्रों पर नियंत्रण को प्राथमिकता दी, ब्लू वाटर पॉलिसी और भारतीय शासकों की अयोग्यता और दूरदर्शिता। पुर्तगीज भारत में असफल भी हुए, भारतीय जनता के प्रति असहिष्णुता, ईसाई धर्म का थोड़ा प्रसार और भारत में ऑलरेडी मुस्लिम और हिंदू धर्म प्रचलित थे, पुर्तगालियों द्वारा नए उपनिवेश किसकी खोज कर ली देखो भारत से बड़ा संसाधन हाथ में लग गया था इनके ब्राजील और पूरे ब्राजील पर इनका ही शासन रहा आज भी ब्राजील की भाषा पुर्तगीज है। अन्य यूरोपियन कंपनी से कंपटीशन मिलने लगा और भारत से प्राप्त लाभ को इन्होंने इन्वेस्ट बल्कि भारत के लाभ को वही पर पुर्तगाल में ही छोड़ देते थे। पुर्तगालियों की भारत को क्या देन रही पुर्तगालियों ने भारत में गन्ना, अनानास, पपीता, आलू और मक्का लाया। भारत के तटवर्ती क्षेत्रों में कैथोलिक ईसाई धर्म का प्रचार किया। 1556 में गोवा में भारत की पहली प्रिंटिंग प्रेस की स्थापना करने का श्रेय भी पुर्तगीज को जाता है। समुद्री व्यापारिक महत्व का परिचय, समुद्री जहाज निर्माण का परिचय और भारत में गोथिक विक्टोरियन स्थापत्य कला। पुर्तगाल सबसे पहले भारत आए और सबसे अंत में भारत से गए। औपचारिक रूप से गोवा दमन 1961 तक पुर्तगाली सरकार के अधीन रहा।

डचों का आगमन

डचों का आगमन मतलब नीदरलैंड और हॉलैंड के निवासी। पुर्तगालियों के बाद भारत में व्यापारिक उद्देश्यों के लिए आने के क्रम में दूसरे नंबर पर। भारत में वस्त्रों के निर्यात सर्वप्रथम डचों को ही जाता है। पुर्तगालियों के आगमन के लगभग 100 वर्ष बाद डच पहली बार भारत आए। 1595 में डचो का भारत में प्रथम दल कार्नेलियस हाउट मेन के नेतृत्व में भारत आया था। डचों ने इंडोनेशिया के बाट विया को अपना मुख्यालय बनाया। 1605 में डचो ने आंध्र प्रदेश के मछली पटनम में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। डचों की बंगाल में पहली कंपनी बनी पीपली में 1627 में। इसके कुछ ही दिनों बाद डच पीपली से बालासोर चले गए। बंगाल में डचों ने 1635 से लेकर 1656 तक कई हुगली में कारखाने बना दिए। 1653 में स्थापित फैक्ट्री डचो का व्यापारिक मुख्य केंद्र बनी। 17वीं सदी की समाप्ति तक डच कंपनियां कासिम बाजार, पटना, ढाका, मालदा, बालासोर, बंगोर, जुगिया, फतवा इत्यादि स्थानों पर स्थापित हो चुके थे।

अंग्रेजों का आगमन

अंग्रेज 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना ब्रिटेन में करेंगे। कंपनी का औपचारिक नाम था द गवर्नर एंड कंपनी ऑफ मर्चेंट ऑफ ट्रेडिंग इनटू द ईस्ट इंडीज। कंपनी का गठन मूलत पूर्वी देशों के साथ व्यापार के संदर्भ में। कंपनी का मुख्य उद्देश्य पूर्व के साथ मसाले और काली मिर्च। महारानी एलिजाबेथ ने 15 वर्षीय व्यापारिक एकाधिकार की अनुमति दी। 1608 में कैप्टन हॉकिंस के नेतृत्व में एक दल सूरत पहुंचा। 1613 में जहांगीर के द्वारा कंपनी को सूरत में व्यापारिक कोठी स्थापित करने की अनुमति मिली। भारत से मसालों के साथ ही सूत, सूती कपड़ा, नील, पोटेशियम नाइट्रेट और चाय का निर्यात करने लगी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1623 तक सूरत, मछली पट्टनम, भड़क, अहमदाबाद और आगरा में भी कोठी खोली। अंग्रेजों की बढ़ती व्यापारी गतिविधियों के कारण पुर्तगालियों के साथ उनके संघर्ष प्रारंभ हुए। 1620 में नौसेना युद्ध में अंग्रेजों ने पुर्तगालियों को पराजित कर दिया। 1698 में बंगाल के सूबेदार अजीमो शान ने अंग्रेजों को सूता नाती, गोविंदपुर, कालीकट की जमींदारी प्रदान की। इन्हीं स्थानों को मिलाकर जॉब चरनॉक ने कलकत्ता में फोर्ट विलियम की स्थापना की जिसका प्रथम अध्यक्ष चार्ल्स आयर था।

फरूक सियर

1717 में मुगल सम्राट फरूक सियर के द्वारा दस्तक नामक एक शाही फरमान जारी किया जिसके तहत ब्रिटिश कंपनी को पूरे बंगाल में बिना कोई शुल्क दिए व्यापार करने की अनुमति मिल गई। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में पहली अनौपचारिक कोठी की स्थापना मछली पट्टनम में लेकिन औपचारिक कोठी सूरत में। फ्रांसी सियों द्वारा भी भारत में अपने सबसे पहला कारखाना सूरत में ही लाया गया। लिवें कंपनी 1593 में स्थल मार्ग से भारत में व्यापार करने का अधिकार पत्र प्राप्त हुआ। 1599 में लंदन के कुछ व्यापारियों ने लॉर्ड मेयर की अध्यक्षता में एक बैठक का आयोजन किया। इस बैठक में पूर्वी द्वीप समूह के साथ व्यापार करने की नई योजना तैयार हुई। इन व्यापारियों ने पूर्वी के देशों के साथ व्यापार करने के आशय से 1599 में कंपनी का गठन किया और फिर जाकर इस कंपनी का ही नाम रखा गया था ईस्ट इंडिया कंपनी। 17वी शताब्दी के पहले चतुर्थांश में ईस्ट इंडिया कंपनी का कारखाना स्थित था बड़ो में।

डेनिश और फ्रांसीसी

161 में डेनिश व्यापारिक कंपनी का भारत आगमन। 1620 में त्रावणकोर तंजोर में पहली व्यापारी कोठी। इसके लंबे समय के बाद 1676 में बंगाल के सेरामपुर में दूसरी कोठी। डेनिश कंपनी ने भारत में व्यापारिक उद्देश्यों को अधिक प्राथमिकता नहीं दी। अतः 1745 में अपनी सभी भारतीय व्यापारिक कोठियों को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी को बेचकर भाग गए। 1664 में फ्रांस के तत्कालीन सम्राट लुई 14 के वित्त मंत्री कोलबर्ट ने फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की। फ्रांसीसी व्यापारिक कंपनी के भारत में देरी से आने का एक लाभ यह हुआ कि कंपनी को भारत में अपनी व्यापारिक कोटि स्थापित करने के लिए ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ा। फ्रांसीसी कंपनी ने 1668 में अपनी पहली व्यापारी कोठी सूरत में खोली। 1669 में अगली व्यापारी कोठी मछली पटनम। शीघ्र ही फ्रांसिस और ब्रिटिश व्यापारी कंपनियों में प्रतिस्पर्धा और परस्पर संघर्ष का प्रारंभ हो गया।

कर्नाटक के युद्ध

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और फ्रांसीसी कंपनी के बीच कर्नाटक के तीन युद्ध होते हैं, जिसमें अंतिम रूप से ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की निर्णायक जीत होती है। कर्नाटक के युद्ध भारत में अंग्रेज और फ्रांसी सियों के बीच लड़े गए युद्धों को कर्नाटक युद्धों के नाम से जाना जाता है। कर्नाटक का प्रथम युद्ध 1746 से 1748, कर्नाटक का द्वितीय युद्ध 1750 से 1752 और कर्नाटक का तृतीय युद्ध 1758 से 1763। प्रथम कर्नाटक युद्ध एक्सला चेप की संधि से अंत, द्वितीय कर्नाटक युद्ध अनिर्व कर्नाटक युद्ध पेरिस की संधि से अंत। प्रथम कर्नाटक युद्ध ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकारी के युद्ध के साथ प्रारंभ। 1746 में भारत में भी युद्ध शुरू हुआ। यूरोप में ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकारी युद्ध की समाप्ति एक्सला शफल की संधि होती है। इसके परिणाम स्वरूप भारत में भी युद्ध समाप्त हो जाता है।

कर्नाटक का दूसरा युद्ध

कर्नाटक का दूसरा युद्ध कर्नाटक के नवाब के पद के लिए संघर्ष। कर्नाटक के नवाब के लिए फ्रांसी सियों ने चांद साहब का समर्थन किया और वही अंग्रेजों ने अनवर उद्दीन का समर्थन। दक्कन के सूबेदार के लिए फ्रांसी सियों ने मुजफ्फर जंग का समर्थन किया और अंग्रेजों ने। चांद साहब और फ्रांसीसी सेना ने संयुक्त रूप से अनवर उद्दीन को हरा दिया। तीसरा कर्नाटक युद्ध यूरोप में शुरू होता है सप्त वर्षीय संघर्ष। भारत में अंग्रेज और फ्रांसीसी के बीच फाइनली एक शांति समाप्त जो कायम हुई थी युद्ध के बाद वह समाप्त होती है। इस युद्ध में अंग्रेजों ने फ्रांसी सियों को पराजित किया और इसी हार के बाद भारत में फ्रांसी सियों का अस्तित्व लगभग समाप्त।

फ्रांसीसी कंपनी हार के कारण

फ्रांसीसी कंपनी हार के कारण फ्रांसीसी कंपनी के कंपनी थी और इसलिए निर्णय लेने में टाइम लग जाता था। इसके लाभ और हानि के प्रति कंपनी के डायरेक्टर उदासीन थे। यूरोप में संघर्ष में फ्रांसी सियों का उलझे रहना और भारत में कंपनी की गतिविधि पर अधिक ध्यान ना देना। अंग्रेजों का बंगाल पर नियंत्रण था जहां से अंग्रेजों को पैसे की बड़ी प्राप्ति भी हुई। अंग्रेजी कंपनी का राजनीतिक और सैनिक नेतृत्व फ्रांसीसी कंपनी के अपेक्षा ज्यादा बेटर था। फ्रांसीसी की पराजय का एक प्रमुख कारण था उनकी कमजोर नौसेना। भारत में ब्रिटिश सफलता के क्या कारण रहे कुशल नेतृत्व, आधुनिक हथियार, सबसे उन्नत नौसेना, 18वीं शताब्दी में भारतीयों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले हथियार बेहद धीमे और भारी थे, जबकि अंग्रेजों द्वारा प्रयोग किए जाने वाले यूरोपीयन बंदु के ओर तोपे भारतीय हथियारों के बजाय ज्यादा एडवांस थी। सुशासन, कुशल नेतृत्व और पैसों की तो कमी थी नहीं और उनके अंदर राष्ट्रवाद की भावना थी।

डुपले

डुपले फ्रांसिस ईस्ट इंडिया कंपनी की व्यापारिक सेवा में भारत आया और 1731 ईवी में चंद्रनगर का गवर्नर बना। डुपले की कार्य कुशलता को देखते हुए उसे 1741 में अधिक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र पदु चेरी का गवर्नर बना दिया गया। 1754 में डुप्ले को वापस बुला लिया गया। डुपले ने फ्रांसीसी कंपनी के अधिकारी और कर्मचारियों को निजी व्यापार करने की स्वतंत्रता प्रदान कर दी थी। डुपले की गलती दक्षिण भारत में इतना जूझ गया डुपले कि भूल गया उत्तर भारत ही केंद्रीय सत्ता का केंद्र बिंदु है। डुपले प्रथम यूरोपियन था जिसने भू क्त्र अर्जित करने के उद्देश्य से भारतीय राजाओं के झगड़ों में में भाग लेने की नीति आरंभ की। डुपले ने ही पहली बार यूरोपियन सेना को भारतीय राज दरबारों में भारतीय व्यय पर नियुक्त करवाया। पहली बार यूरोपियन हितों के लिए भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप किया और भारत में यूरोपियन साम्राज्य की नीव रखी।

महत्वपूर्ण तथ्य

वास्को डिगामा भारत आने वाला पहला यूरोपियन यात्री। पेड्रो अल्वारेस के बाल दूसरा पुर्तगाली। फ्रांसिस्को अलमेड़ा भारत का पहला गवर्नर भी कह सकते या पुर्तगाल या यूरोपियन गवर्नर भी कह सकते हैं। जॉन मिल्न हॉल भारत आने वाला प्रथम ब्रिटिश नागरिक। कैप्टन हॉकिंस प्रथम अंग्रेज दूत जिसने सम्राट जहांगीर से भेंट की। गेरो अंगिया बंबई का संस्थापक। जॉब चरनॉक कोलकाता का संस्थापक। चार्ल्स फोर्ट विलियम 1781 का प्रथम प्रशासक।

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डचों का आगमन

डचों का आगमन मतलब मूल रूप से नीदरलैंड और हॉलैंड के निवासी। पुर्तगालियों के बाद भारत में व्यापारिक उद्देश्यों के लिए आने के क्रम में दूसरे नंबर पर। भारत में वस्त्रों के निर्यात सर्वप्रथम डचों को ही जाता है। डचों ने इससे पहले इंडोनेशिया में अपनी व्यापारिक गतिविधियां शुरू की। 1595 में डचो का भारत में प्रथम दल कार्नेलियस हाउट मेन के नेतृत्व में भारत आया था। डच व्यापारिक कंपनी का मूल नाम था यूनाइटेड ईस्ट इंडिया कंपनी ऑफ नीदरलैंड। डचों ने इंडोनेशिया के बाट विया को अपना मुख्यालय बनाया। 1605 में डचो ने आंध्र प्रदेश के मछली पटनम में अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। डचों की बंगाल में पहली कंपनी बनी पीपली में 1627 में। इसके कुछ ही दिनों बाद डच पीपली से बालासोर चले गए। बंगाल में डचों ने 1635 से लेकर 1656 तक कई हुगली में कारखाने बना दिए। 1653 में स्थापित फैक्ट्री डचो का व्यापारिक मुख्य केंद्र बनी। 17वीं सदी की समाप्ति तक डच कंपनियां कासिम बाजार, पटना, ढाका, मालदा, बालासोर, बंगोर, जुगिया, फतवा इत्यादि स्थानों पर स्थापित हो चुके थे।

अंग्रेजों का आगमन

अंग्रेज 1600 में ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना कहां करेंगे कंपनी की स्ता ब्लिश ब्रिटेन में। कंपनी का औपचारिक नाम था द गवर्नर एंड Company ऑफ मर्चेंट ऑफ ट्रेडिंग इनटू द ईस्ट इंडीज। कंपनी का गठन मूलत पूर्वी देशों के साथ व्यापार के संदर्भ में। कंपनी का मुख्य उद्देश्य पूर्व के साथ मसाले और काली मिर्च। महारानी एलिजाबेथ ने 15 वर्षीय व्यापारिक एकाधिकार की अनुमति दी। 1608 में कैप्टन हॉकिंस के नेतृत्व में एक दल सूरत पहुंचा। 1613 में जहांगीर के द्वारा कंपनी को सूरत में व्यापारिक कोठी स्थापित करने की अनुमति मिली। भारत से मसालों के साथ ही सूत, सूती कपड़ा, नील, पोटेशियम नाइट्रेट और चाय का निर्यात करने लगी। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1623 तक सूरत, मछली पट्टनम, भड़क, अहमदाबाद और आगरा में भी कोठी खोली। अंग्रेजों की बढ़ती व्यापारी गतिविधियों के कारण पुर्तगालियों के साथ उनके संघर्ष प्रारंभ हुए। 1620 में नौसेना युद्ध में अंग्रेजों ने पुर्तगालियों को पराजित कर दिया। 1698 में बंगाल के सूबेदार अजीमो शान ने अंग्रेजों को सूता नाती, गोविंदपुर, कालीकट की जमींदारी प्रदान की। इन्हीं स्थानों को मिलाकर जॉब चरनॉक ने कलकत्ता में फोर्ट William की स्थापना की जिसका प्रथम अध्यक्ष चार्ल्स आयर था।

फरूक सियर

1717 में मुगल सम्राट फरूक सियर के द्वारा दस्तक नामक एक शाही फरमान जारी किया जिसके तहत ब्रिटिश कंपनी को पूरे बंगाल में बिना कोई शुल्क दिए व्यापार करने की अनुमति मिल गई। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी भारत में पहली अनौपचारिक कोठी की स्थापना मछली पट्टनम में लेकिन औपचारिक कोठी सूरत में। फ्रांसी सियों द्वारा भी भारत में अपने सबसे पहला कारखाना सूरत में ही लाया गया। लिवें कंपनी 1593 में स्थल मार्ग से भारत में व्यापार करने का अधिकार पत्र प्राप्त हुआ। 1

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